Wednesday, March 14, 2007

कुछ तुम्हारी कुछ हमारी

कुछ तो बात है जो आप मुझे खोज रहे हो। शायद मेरे बारे में जानना चाहते हो कि, मै कौन हूँ ?जरूर बताऊंगा । लेकिन इतनी जल्दी क्या है,समय आने पर आपको कुछ बतानें की जरूरत ही न रहेगी ।आप खुद ही समझ जाएंगें।
हम हमेशा दूसरों के बारे में जाननें के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं । पता नही क्यों लगता है कि इंसान का यही स्वाभाव शायद एक दूसरे को आपस मे जोड़नें का काम आता होगा। क्यूँकि जहाँ तक मै समझता हूँ ।आज बिना मतलब के हम दूसरे को मित्र बनाना पसंद नही करते। हाँ, यह हो सकता है कि कई बार हम टाइम पास के लिए किसी को नापसंद करते हुए भी संबध बनाए रखते हैं।शायद अपने मतलब के लिए।भीतर से हमे बोध होता है कि इस से हमें कोई लाभ नही होने वाला और ना ही हम खुद उसकी किसी काम मे मदद करने को कभी उत्साहित ही होंगें । फिर भी हम उसके सम्पर्क मे बने रहते हैं,क्यूँकि इस मे हमारा निहित स्वार्थ रहता है । हम स्वार्थी हो जाते हैं किन्तु हम इसको स्वीकारने को कभी तैयार नही होते है। ऎसा हम क्यूँ करते है ? इस बारे मे हम कभी सोचना नही चाहते । इस विषय पर मुझे अपनी लिखी एक कविता याद आ रही है आप भी सुनें--:




अपने आपसे......



मेरी लड़ाई तुम से नही
अपने आप से है।



यदि तुम्हें हराना होता
तब मे कोई भी अस्त्र-शस्त्र
तुम्हारे विरूध उठा लेता
अपने बदन मे आग जला
तुम्हारे घर में घुस
तुम्हारा घर जला देता
या फिर
तुम से प्रेम कर
अपनी बाँहों मे भर
चूम लेता
क्यूँकि ये सभी के
अपने हाथ मे है
मेरी लड़ाई तुमसे नही
अपने आप से है।
मैनें अपने ही विरोध मे
एक आवाज उठाई है
अपने खुद ही हरानें की
कसम खाई है।
लेकिन अफसोस !
मै अपने को ना हरा पाया
सदा भटकता रहा
कभी घर कभी बाहर
कभी तुम मे
कभी अपने में
लेकिन आज तक अपने को
ना पा सका
रास्ते मे ही लुढकनें लगा हूँ
हारा थका ।
इस हारे थके मन को
ना जाने अब भी कहीं से
आवाज आती है
उठो ! तुम बहुत करीब हो
वह अक्सर गुनगुनाती है
इसी लिए मेरी यात्रा
किसी आस मे है।
मेरी लड़ाई तुमसे नही
अपने आप से है।

क्या ये बात सच नही, कि हम अपने आप से हमेशा हार जाते हैं ? तभी तो दूसरों को धोखा देना हमारे लिए आसान हो जाता है ।
वही इंसान दूसरों को धोखा देता है जो स्वयं से हारा हुआ होता है ।
काश ! हम अपने व दूसरों के प्रति स्वार्थ की भावनाएं सदा के लिए छोड़ पाते । लेकिन नही, शायद हम कभी सुधर नही सकेगें कभी । आज हम अपनी भावी पीड़ी के लिए जो भविष्य का निर्माण करते जा रहे हैं ना मालूम वह उन्हें किस दिशा की ऒर ले जाएगा ।आज हमें इस की रत्ति भर भी चिन्ता नही है । आज हमनें एक ऎसी पीड़ी तैयार कर दी है जो कल सब के लिए जी का जंजाल बन जाएगी, भलें ही वह पूरी तरह से साधन सम्पन्न होगी । आज हम साधन संपन्नता को ही उन्नति का, प्रगति का मार्ग समझ कर चल रहे हैं । लेकिन मेरी निजि सोच यह है कि जब तक हम बाहरी प्रगति की बजाए व्यक्ति विशेष की आत्मिक व नैतिक उन्नति नही होगी । इंसान का इंसान के प्रति प्रेम व अपनत्व की भावना पैदा नही होगी । तब तक किए गए सभी कार्य इंसान को बाहरी तड़क-भड़क तो दे सकते हैं, लेकिन उन साधनों का सदुपयोग करना इंसान कभी सीख नही पाएगा । यह मात्र ऎसा ही होगा जैसे किसी नासमझ बच्चे के हाथ में हवाई जहाज का नियंत्रण सौप देना । कहिए जनाब आप का क्या विचार है ?